दो अजनबी, खुद से अनजान खुद को एक दूजे के नाम कर गए।
मोहब्बत तो बहुत थी पर स्वाभिमान में सबकुछ ख़ाक कर गए।
नए साल की शुरुआत थी,
रात का बुढ़ापा था और सुबह जवान थी।
रांझे ने उसके दिल की घंटी बजाई अपनी शरारत से।
हीर ने भी स्वागत किया, उतनी ही मुस्कुराहट से।
यूं ही नादानियों व शरारतों में महीने भर पार कर गए।
बातों ही बातों में एक दूसरे के हमराज बन गए।
खुद को संभालते हुए, दोनों ने समझाया कि अरे ये तो बस मस्ती थी।
उन्हें तब भी मालूम न था, की एक दूजे में उनकी जान बसती थी।
दूर होना चाहते थे दोनों इस बेबुनियादी खेल से।
उड़ गए तब इस मोहब्बत की जेल से।तस्वीरों में ही देखकर बातें किया करते थे।
एक दूजे से इश्क़ करते थे….इससे इनकार किया करते थे।
वक़्त की चली ऐसी आंधी जो विश्वास की डोर तोड़ गई।
इनके प्यार के राहों में एक नया मोड़ दे गई।
एक दूजे को सुनने की बेताबी थी…फिर भी जाने क्यों दोनों रहे मौन।
स्वाभिमान था बीच में…सोचा पहल करे कौन।
शाम का गुजरना था।
रात का बचपना था।
हीर ने बोल दिया, अब राझे को सुनना था।
मुस्कुराने लगे होंठ, खुशियों की बौछार आ गई।
अभी थोड़ा ही प्यार हुआ की,
फिर एक गलतफहमी कि दीवार आ गई।
नफ़रत हो गई दोनों को एक दूसरे के ऐतबार से।
मगर मोहब्बत की एक और सीढ़ी चढ़ जाते थे, ऐसी छोटी छोटी तकरार से।
दस दिन गुजर गए एक दूजे की आस में।
इस बार रांझे ने बोल दिया हीर की प्यास में।
फिर से इनकी दुनिया रंगीन हो गई।
इनकी मोहब्बत भी गज़ब की संगीन हो गई।
इनके दूरियों की दरख़्तें शायद अब भी न सिली।
इस मोहब्बत को पनाह, उसके घर में न मिली।
मां बाप की इज्जत थे दोनों को प्यारे।
अब ये मोहब्बत खुदा ही संवारे।
रख लिया मान उसने मां बाप की मिन्नत का।
कर अाई वो सौदा …मोहब्बत से इज्जत का।
देख कर उसकी मांग में किसी और का सिंदूर।
चला गया रांझणा उससे बहुत दूर।
लिख गया एक खत,
तूने कर लिया समझौता मैं नहीं कर सका।
तुझे अपना बनाने का वादा पूरा न कर सका।
कैसे कह दूं कि जोड़कर अब किसी अजनबी से रिश्ता खुश रहूंगा,
माफ़ करना
मै तुझे जिंदगी भर धोखे में भी न रख सका।
देखकर उसकी लाश, उसने अश्कों से कहा
मत निकलना इन आंखो से, वरना इस मोहब्बत के चर्चे सरेआम हो जाएंगे।
जिनके घर की इज्जत हूं,
उनके चेहरे बदनाम हो जाएंगे।
साथ जीने को कहा, साथ मर भी न पाई।
फ़र्ज़ की बेबसी थी, जो रो भी न पाई।
_कलम बानरसी ( Shîvåñî)